
ज़ोहराबाई अंबालेवाली की यादें
दूरदर्शन के पुराने कुछ एक साक्षात्कारों को जानकारी के खजाने के तौर पर देखा जा सकता है, जहाँ एक फनकार खुद अपनी ज़िंदगी के अनछुए पहलुओं से रूबरू कराता था. चूंकि आज के दौर में इन्टरनेट भी जानकारी का अच्छा खासा खज़ाना लिए है और थोड़ा गोता लगाने पर कभी कभी कुछ दुर्लभ मोती हाथ लग जाते हैं. आज ऐसे ही एक मोती , स्वर निधि से आपकी मुलाक़ात कराएँ, जिसने सिने पर्दे के शुरूआती सालों में हिंदी फिल्मो के लिए अपनी आवाज़ भरी . नाम था ज़ोहराबाई अम्बालेवाली .
पढ़ें अनीता सिंह के साथ ज़ोहरा बाई अम्बालेवाली की इसी बातचीत के कुछ एक अंश .
- गाने की शुरुआत कैसे हुई ? जबकि आपके ज़माने में गाना बजाना तो बुरा समझा जाता था .
-
ज़ोहरा : बिल्कुल बुरा समझा जाता था. लेकिन,मेरे नाना ने किसी की परवाह नहीं की और उन्होंने मेरे गाने को तरक्की दी ,जबकि मेरे वालिद और मेरी माँ इस काम से वाकिफ ना थे , वो इस काम को जानते नहीं थे .
- तो आपने मोसीकी की तालीम कैसे ली ?
ज़ोहरा : (बचपन से ) अम्बाले की रहने वाली हूँ .मेरे नाना जी जो कि अम्बाला में ही रहते और जिन्हें मोसिकी का शोक था ,उन्होंने मुझे देखा कि ये गाना गाती है तो उन्होंने कहा तुम्हारा (गाने के ) शौक है ? तो मैंने कहा कि हाँ मेरा शौक है .तो उन्होंने मुझे कहा तो मैं तुम्हें गाना सिखवाऊंगा . फिर उन्होंने (पंजाब के मशहूर ?) नाज़िर हुसैन और उस्ताद गुलाम हुसैन (पटियाले के ) ने मेरे इस शौक को देखा और फिर उन्होंने सिखाया . ये सफ़र पांच छे साल चला . ये मेरी खुशनसीबी थी कि मुझे इस मौसिकी से लगाव होगया . - आपने तालीम तो ली इसके बाद क्या ? क्योंकि आप तब तो गाती नहीं थीज़ोहरा : ग्रामोफोन के लोग वहाँ आते थे , लड़कियों को सुना- देखा करते थे कि कौन अच्छा गाता है , तो वो आये और उन्होंने मुझे सुना .सुनके उन्होंने कहा कि बहुत अच्छी आवाज़ है ,और उन्होंने मुझे गाने के लिए बुक कर लिया . लेकिन मेरे नाना इसको शुरू में माने नहीं लेकिन मैंने उनसे कहा कि हम इसे करेंगे . तो इस तरह हम दिल्ली आगये . दिल्ली में तब हम नाना जी के साथ मोरी गेट में रहने लगे . इसके कुछ वक्त बाद ही मेरी शादी भी हो गई .
- आपका पहला गाना कौन सा था ?
ज़ोहरा : ज़ेर -ए दीवार खड़े हैं तेरा क्या लेते हैं, देख लेते हैं ताबिश दिल की बुझा लेते हैं
*(फिलहाल तलत की आवाज़ में यहाँ सुना जा सकता है )* वो गाया था मैंने . फिर वो मकबूल हो गया . जिसे सुनके ऑल इंडिया रेडियो ने मुझे बुलाया. तब वहाँ बुखारी साहब थे डारेक्टर. तो उन्होंने मुझे रेडियो पर गवाया. उस ज़माने में सुबह 6-7 बजे निकलते थे घर से . काफ़ी मेहनत लगती थी . उस ज़माने में कलाकारों की काफ़ी इज्ज़त होती रेडियो में कलाकारों की. फय्याज खां वाना आते तो उनके लिए कुर्सियां बिछाई जाती . रेडियो पर एक महीने में चार बार वहाँ जाना होता ,और ठुमरी दादरा गाते . और बाहर भी जाते ,क्योंकि तब तक विभाजन हुआ नहीं था इसलिए लाहौर, पेशावर, हेदराबाद भी भेजते थे . - अच्छा तो उस ज़माने में एक रेकोर्डिंग की क्या फीस मिला करती ,रेडियो कलाकारों को क्या दिया करते ?ज़ोहरा : फीस तो साहब इतनी थी कि 100 रुपया महीना मुझे ग्रामाफोन से मिला करता. मेरे आलावा ज़ीनत, शमशाद, नूरजहां ,उमराव ज़िया बेगम भी गाया करती थी . पेशावर -हेदराबाद भी हम लोग जाते , कलाकारों में काफ़ी मेल जोल था . इसबीच रंगून भी जाना हुआ, और तब तक मेरी शादी हो गई थी .तो रंगून पति और बाक़ी साजिंदों के साथ गई थी .पूरी रिकॉडिंग आप यहाँ सुन सकते हैं
courtesy :bobby mudgel
- पढ़ें :ज़ोहरा की ज़िंदगी की बाक़ी कहानी
- सुनें: मशहूर पार्श्वगायिका लता मंगेशकर के साथ ज़ोहराबाई अम्बलेवाली की याद
- सुनें : ‘यादों के पन्ने पलटती ज़ोहरा बाई को
वो कहती हैं कि ‘मुझे खुद शौक था गाना गाने का . उस्तादों से सीखा .14 साल की थी में जब मैंने रिकॉर्ड किया ‘छोटे से बलमा मोरे आंगना में गिल्ली खेले’. मेरे पति भी अच्छी मौसिकी जानते हैं , तो इन्होंने कहा कि शौक है तो गाने दो . मेरी मम्मी ने भी कहा कि जब इनका शौक है तो शौक क्यों खत्म किया जाये .जब तक गाना ठीक ना हो जाये तब तक रिहर्सल करते रहते थे .कई मुश्किल गाने होते जिन्हें देर तक करना पड़ता .ज़ोहरा कहती हैं कि उन्हें ज़्यादा ‘ट्रेजीड़ी सॉन्ग्स’ गाना पसंद रहे . और फिर एक एक करके ज़ोहरा अपने पुराने गानों को गुनगुनाने से खुद को रोक नही पाती :
‘सामने गली मेरा घर है पता मेरा भूल ना जाना …..’
‘ये रात फिर ना आएगी जवानी बीत जायेगी .…’
‘सावन के बादलो उनसे ये जा कहो …तकदीर में यही था साजन मेरे ना रो ‘
‘दुनिया चढ़ाये फूल मैं आँखों को चढा दूं ,भगवान तुझे आज मैं रोना भी सिखा दूं
2 responses to “zohrabai Ambalewali’s interview:”