कुंदनलाल सहगल—भारतीय फिल्म पार्श्व-गायन और सुगम शैली के रजतपट-गायन-सह-अभिनय के बेताज बादशाह कहे जाते हैं जिन्होंने किसी न किसी कोण से पार्श्व-गायन के स्वर्णयुग के सभी गायकों को प्रभावित किया और अंदाजो-अदा का हुनर सिखाया। सहगल साहब सफलता के दिनों शराबनोशी करके गायन के कायल थे और रिहर्सल व रिकार्डिंग के बीच एक तस्बीह,याने जपमाल लेकर जप भी करते थे।अब यह कौन सी अदा थी और कैसा नशा था जो इस महान गायक को ख़ुदी और नाखुदी के बीच का अंतराल भरवाता था,ये तो वो ही समझें लेकिन श्रोताओं पर उनके गायन का जो नशा चढ़ा वह आजवक़्त तक कायम है।महान प्रतिभाएँ नियमों की मोहताज़ नहीं होतीं बल्कि उनका बर्ताव ही कई नए नियम कायम कर जाता है।
सहगल जिस शराब के मुरीद थे आखिर उनके शरीर पर वह असर दिखाके रही और कम समय में ही उन्हें हमसे छीन ले गयी। यह सहगल की सफलता के चरम के लेकिन आख़री दिनों की बात है जब वे बिना इंजेक्शन खड़े भी नहीं हो सकते थे और शराब उन्हें बिलकुल मना थी, नौशाद मशहूर ‘शाहेजहाँ’ के लिए उन्हें गवा रहे थे,और शराब के बिना सहगल चिडचिडा जाते थे। अपनी जिद से उन्होंने बाकी सब गीत तो शराबनोशी करके रिकार्ड किये लेकिन मजरूह का ‘गम दिए मुस्तकिल,कितना नाज़ुक है दिल,,,,,” उनके रंग नहीं चढ़ रहा था।शराब के बिना गाने के बहुत अनुरोध पर वे इस तरह राज़ी हुए कि एक बार बिना पीये गाकर रिकार्ड सुनते हैं,यदि जमा नहीं तो फिर पीके ही गायेंगे। गाना रिकार्ड हुआ,और सहगल ने माना कि बिना नशे भी वे गाने में नशा भर सकते हैं।इस तरह,यह सहगल का वह नायाब गाना है जो बिना शराब गाया गया। खैर, तब तक देर हो गयी थी और कुछ समय बाद ही सहगल अपने चाहने वालों को मुस्तकिल ग़म देकर दुनिया-ए-फानी से रुखसती ले गए,पर उनकी आवाज़ आज भी आत्मा का नशा तारी कर जाती है।
लता मंगेशकर सहगल साहब से बहुत मुतास्सिर थीं और उनसे मिलने के लिए व्यग्र भी।उस समय वे उतनी नामचीन नहीं थीं और उनके पास पैसे भी नहीं थे।तब सहगल साहब कोलकाता से काम करते थे।लता उनके गाने सुनने के लिए पैसे जोड़कर रेडियो लायीं और उन्हीं के अनुसार,क्या विडंबना कि उसी दिन उस रेडियो से उन्होंने उनकी मृत्यु का समाचार सुना। लता इतनी मर्माहत हुईं कि उन्होंने वह रेडियो उठाकर रख दिया और फिर कभी नहीं सुना। तलत भी सहगल से प्रभावित थे और कोलकाता में उन्हें शायद ‘स्ट्रीट सिंगर’ फिल्म के गाने सहगल द्वारा रिकार्ड करते देखने का सौभाग्य मिला जिसमें उन्होंने इनकी गायकी की अदाओं को प्रत्यक्ष देखा और अंदाज़ सीखे। ज्ञात हो कि सहगल के ज़माने में सुगम गायन और क्लासिक को सरल लोकलुभावन शैली में गाने का अंदाज़ विरल ही था और सहगल इस मायने में अग्रदूत थे कि उन्होंने कई गायकों के लिए एक शैली ईजाद की। मुहम्मद रफ़ी भी उस वक्त नए थे और ‘शाहेजहाँ’ के एक अन्य गाने ‘रूही,रूही,रूही,,,मेरे सपनों की रानी’ में आखिर मे कोरस की जो सबसे बुलंद आवाज़ सुनाई देती है वह रफी की ही है। मुकेश ने अपना पहला प्रसिद्द गाना ‘ दिल जलता है तो जलने दे,,,’ सहगल की ही शैली में गाया था यह तो ज्ञात ही है। किशोर भी बड़ी खूबी से गंभीरता व हास्य के पुट–दोनों तरह से सहगल को कापी करते थे। चंद्रू आत्मा जैसे गायक ने तो जीवन भर सहगल का अंदाज़ लेकर गाया और अपना प्रशंसकवर्ग कायम किया।
असल में सहगल की आवाज़ का सोज़,अंदाज़,घनेरापन और भावुकता ही वह धन थी जो उसे श्रोताओं के दिल में उतरने का रंग बख्शती थी। वे शराब का सहारा अपनी बेखुदी में उतरने के लिए लेते थे और एक बार जो अपने को भूलकर गाते थे तो केवल गीत और उसका भाव बचता था याने ‘इम्पर्सनल’ टच उसमें आता था, यही बात संभवतया श्रोता को विगलित कर देती थी।आज भले यह अंदाज़ और प्रभाव लोग न समझ सकते हों लेकिन उस ज़माने के लिहाज़ से देखिये तो उसका महत्त्व उजागर हो जाएगा।.
G N Joshi अपनी किताब ‘Down Melody Lane’ में लिखते हैं
” while working in Ranjit film company , he frequentely came to our office to record his songs, always in the afternoon. On arrival he would come straight to my cabin and put his bottle of scotch in my table drawer. He knew very well that it was safe with me !
Normally there would be about half a dozen rehearsals before actual recording.He would have half a peg between rehearsals.His voice became mellower with each rehearsal, and then would come a stage that was ultimate in beauty.It was my job to catch him on disc at this stage , when every word, every note bore the stamp of rare and rich artistry. All the songs he recorded for ‘Taansen, Surdaas, and Shahajahan became immortal.”
#(vikas nema @sks)