योगेश – सरलता की परिभाषा
अर्चना गुप्ता
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सुनें -‘रजनीगन्धा’ सी महक लिए योगेश जी के साथ अर्चना गुप्ता की बातचीत :
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योगेशजी के विषय में इतनी जानकारी आसानी से उपलब्ध है कि मैं मूल तथ्य बहुत ही संक्षिप्त रूप से आपके सामने रखूंगी।
योगेशजी मूलत: लखनऊ के निवासी थे। इनके पिताजी श्री थान सिंह गौड़ इंजिनीयर थे। उनके देहांत के पश्चात रोज़गार की तलाश में ये मुम्बई आये अपने बचपन के एक मित्र श्री सत्यप्रकाश के साथ। उस समय इनकी आयु मात्र 17 वर्ष थी। काव्य के प्रति इनकी रुचि बचपन से थी परन्तु उस क्षेत्र में कार्यरत होने का कोई विचार नहीं था| ये अपने चचेरे भाई, श्री बजेन्द्र गौड़ से मिले जो स्वयं एक लेखक थे व इंडस्ट्री में काफ़ी कुछ जमे हुए थे। उनके रूखे व्यवहार से इनका स्वाभिमान बहुत आहत हुआ और अपने मित्र के प्रोत्साहन पर इन्होंनें अपने बूते पर फ़िल्म जगत में अपना कुछ मकाम बनाने का निश्चय किया। इन्हें फ़िल्म-निर्माण के किसी भी क्षेत्र में न तो कोई प्रशिक्षण मिला था न कोई अनुभव था और न ही कोई विरासत थी। मुम्बई शहर में अपने लक्ष्य की तलाश में भटकते हुए अपने मनोभाव और विचारों को कविताओं के रूप में व्यक्त करने लगे। फिर इनकी भेंट श्री रॉबिन बैनर्जी से हुई जिनके साथ ने इन्हें सिखाया की फ़िल्मी गीतों के बोल पहले से निश्चित धुनों के अनुरूप लिखे जाते हैं। इन्होनें वही करना शुरू किया और रॉबिनजी की धुनों पर कुछ गीत लिख कर उन्हें दे दिए। तो ये कहना अनुचित न होगा कि गीतकार इन्हें समय और परिस्थितियों ने बना दिया पर अभी सफ़लता इनसे कुछ दूर थी।
लगभग एक वर्ष के संघर्ष के बाद इनके लिखे 6 गीत और रॉबिनजी की धुनें “सखी रॉबिन” (1962) नामक फिल्म में प्रयोग हुईं। इनमें से एक गीत “तुम जो आओ तो प्यार आ जाए” ने ख़ासी लोकप्रियता भी अर्जित की। अगले 7-8 वर्ष तक इन्होंने कुछ छोटे बजट की फिल्मों के लिए खूबसूरत गीत लिखे जिन्हें फिल्मों के न चलते, बहुत अधिक सफ़लता नहीं प्राप्त हुई। इस दौर की ये फ़िल्में, “स्टंट फिल्म्स ” ही थीं जैसे कि “जंगली राजा”, “रॉकेट टार्ज़न” (’63), “कृष्णावतार “, “मार्वल मैन “, “टार्ज़न एंड डेलिलाह” (’64), “फ्लाइंग सर्कस”, “Adventures of Robinhood” (’65), “हुस्न का ग़ुलाम”, “रुस्तम कौन”, “Spy in Goa “, “टार्ज़न की महबूबा” (’66), “एक रात” (’67), “लुटेरा और जादूगर” (’68), “S.O.S जासूस 007” (’69)। इनमें से कई फ़िल्मों के संगीतकार श्री रॉबिन बैनर्जी थे। 1967 में प्रदर्शित हुई फ़िल्म “एक रात” के गीत “सौ बार बनाकर मालिक ने सौ बार मिटाया होगा …” ने भी काफ़ी लोकप्रियता प्राप्त की परन्तु अभी सफ़लता और योगेशजी के बीच कुछ दूरियाँ बनी रहीं।
योगेशजी का भाग्य-परिवर्तन तब हुआ जब ये सुश्री सबिता बैनर्जी के माध्यम से सुप्रसिद्ध संगीतकार श्री सलिल चौधरी के संपर्क में आये। 1968-69 में योगेशजी के लिखे हुए एक-दो गीत सलिल दा के संगीत-निर्देशन में स्वरांकित तो किये गए परन्तु वो फ़िल्में पूरी नहीं हुईं। अंततः1970 में सलिल दा ने योगेश जी को पहली बार एक बड़ी फिल्म में गीत लिखने का अवसर प्रदान किया, फ़िल्म थी “आनंद”! योगेशजी ने अपनी काव्य प्रतिभा का भरपूर परिचय देते हुए “ज़िंदगी कैसी है पहेली हाय” और “कहीं दूर जब दिन ढल जाए”(*) , इन दो गीतों की रचना की। दोनों गीतों ने ख़ासी लोकप्रियता हासिल की और योगेशजी के गीतकार जीवन के सफ़लतम चरण का प्रारंभ हुआ व सलिलजी के संगीत-निर्देशन में नियमित रूप से गीत लिखने का सिलसिला भी शुरू हुआ जिसके चलते इस जोड़ी ने “आनन्द” (’70), “अन्नदाता”, “अनोखा दान” , “मेरे भैया” (’72), “रजनीगंधा” (’74), “छोटी सी बात” (’75), “आनंदमहल”, “मीनू” (’77), “जीना यहाँ” (’79), “Chemmeen Lehren”, “नानी माँ”, “Room No. 203” (’80), अग्नि परीक्षा (’81), आदि फिल्मों के माध्यम से जनता को अत्यंत मधुर गीत दिए जिन्होंने अत्याधिक लोकप्रियता भी प्राप्त की। 1988 में जारी हुई “आखिरी बदला”, इस जोड़ी की अंतिम भेंट थी। यह कहना सर्वथा उचित है कि यह संगठन योगेशजी के गीतकार जीवन के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुआ। आज तक योगेशजी का नाम आते ही सबसे पहले इसी जोड़ी के रचे गीत याद आते हैं।
ये सातवाँ दशक वास्तव में गीतकार योगेशजी के लिए स्वर्णिम था। अन्य उल्लेखनीय संगीतकार जिनका सान्निध्य इन्हें इस दशक में प्राप्त हुआ थे, बर्मन पिता व पुत्र – श्री एस डी बर्मन व श्री आर डी बर्मन। बड़े बर्मन साहिब के साथ इन्होनें मात्र दो फ़िल्में की – “उस पार” (’74) व “मिली” (’75)। परन्तु दोनों के गीत अब तक श्रोताओं के मन-मस्तिष्क में इतना घर किये हुए हैं कि अनायास ही ज़ुबान पर आ जाते हैं। छोटे बर्मन साहिब का साथ इन्होनें लगभग आठ फिल्मों में दिया जिनमें से “चला मुरारी हीरो बनने” (’77), “हमारे-तुम्हारे”, व “मंज़िल” (’79) के गीत प्रमुख रूप से सफ़ल माने जाते हैं। सुश्री उषा खन्ना व श्री राजेश रौशन के साथ भी इन्होनें कईं अच्छे व सफ़ल गीतों की रचना इसी दशक में की। वैसे इन्होनें अन्य छोटे-बड़े संगीतकारों, जैसे सुरेश कुमार, सुरेन्द्र कोहली, विजय राघव राव, भप्पी लाहिरी, वसंत देसाई, भूपेन्द्र सोनी, मीना मंगेशकर, श्यामल मित्रा, जी. एस. कोहली, वनराज भाटिया, कल्याणजी-आनंदजी, आदि, के साथ भी काम किया।
गीतकार के रूप में ये 2009 तक सक्रिय रहे हैं हालाँकि 1998 – 2002 की अवधि में इनकी कोई फिल्म नहीं आयी। अपने कार्यकाल में इन्हें श्री हेमंत कुमार (“दो लड़के दोनों कड़के” ’78), श्री सी रामचंद्र (“तूफ़ानी टक्कर” ’78) व श्री मदन मोहन (“चालबाज़” ’80) की बनाई धुनों पर भी गीत लिखने का अवसर मिला। नए संगीतकारों में इन्होनें निखिल-विनय, अन्नू मालिक, आदेश श्रीवास्तव, दिलीप सेन-समीर सेन आदि के साथ भी काम किया। अब तक की इनकी आखिरी फिल्म “सुनो न” (2009) के संगीत निर्देशक संजॉय चौधरी हैं जो कि सलिल दा के सुपुत्र हैं। चौधरी परिवार की ग़ैर-फ़िल्मी प्रस्तुति “Generations” के लिए भी इन्होंनें गीत लिखे हैं।
श्री हृषिकेश मुख़र्जी व श्री बासु चैटर्जी, इन दो फ़िल्म निर्देशकों का योगेशजी की सफ़लता में ख़ासा योगदान रहा। जहाँ एक ओर हृषि दा के साथ इन्होंनें “आनन्द”, “मिली”, “रंग-बिरंगी” आदि जैसी सफ़ल फिल्मों के लिए गीत लिखे, वहीं दूसरी और बासु दा के साथ “रजनीगन्धा”, “छोटी सी बात”, “बातों बातों में”, “प्रियतमा”, “दिल्लगी”, “शौक़ीन”, “मंज़िल”, आदि फिल्मों में भी अपनी सृजनात्मकता का परिचय दिया। यदि देखा जाए तो योगेशजी के अधिकाँश अविस्मर्णीय गीत इन्हीं दो निर्देशकों की फिल्मों के रहे हैं।
अब तक योगेशजी ने लगभग 100 फ़िल्मों में, तकरीबन 350 गीत लिखे हैं। फ़िल्मी और ग़ैर-फ़िल्मी गीतों के अलावा योगेशजी ने अनेक टी वी धारावाहिकों के शीर्षक गीतों व विज्ञापन फिल्मों की तुकान्तक कविताओं की रचना भी की है।
ये तो थीं मूल तथ्यों की बातें जिनके बिना कोई भी जीवन रूप-रेखा अधूरी रहती है। अब बढ़ते हैं योगेशजी की कला के कुछ पहलुओं पर बात-चीत करने जो आज के लेख के लिए सही मायनों में मुद्दे की बात हैं। इनका नाम सुनते ही कईं गीत ख़ुद-ब-ख़ुद ही ज़हन में घूमने लगते हैं! आखिरकार हूँ तो उस पीढ़ी की जिसने इस महान गीतकार के स्वर्णिम वर्षों में अपना बचपन जिया है, अक्सर इनके गीतों को रेडियो पर सुना और दूरदर्शन (जी हाँ, तब बस वही था) पर देखा है, विशेषतः चित्रहार में। जब इनके बारे में लिखने का विचार किया तभी लगा, एक क्षण भर भी यदि आँखें बंद कर के सोचूँ के इनके गीतों में क्या विशिष्टता है तो यही विचार कौंधता है – सादगी और सरलता – भाषा की सरलता, अमूमन विचारों की सादगी और भावनात्मक रूप से अत्यंत जटिल विषयों को भी सरलता से बखानने की कला। और ये विशेषताएँ इनके एक नहीं अनेकों गीतों में स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।
पहले भाषा की बात की जाए तो उर्दू-प्रधान युग में इस गीतकार ने सरल, शालीन व सुंदर हिन्दी में गीत लिखे। इनकी भाषा में क्लिष्टता नहीं थी परन्तु शुद्ध शब्दों का चयन अवश्य था व बहुत ही सुंदर व बोधगम्य उपमाओं का प्रयोग सहज भाव से किया गया था। “अनुरागी मन”, “मन की सीमा रेखा”, “मधुर गीत गाते धरती-गगन”, “अवगुण और दुर्गुणों का देखा जाना”, “बोझल साँसें”, “घनी उलझन”, “रात के गहरे सन्नाटे”, “सपनों का दर्पण”, “दिन सुहाना मौसम सलोना”, “अलबेला गीत”, “बंधन का सुख” और “साजन का अधिकार”, योगेशजी की कुछ अत्यंत शालीन अभिव्यक्तियाँ हैं जिन्हें हम सभी सरलता से सही गानों के सन्दर्भ में पहचान सकते हैं। योगेशजी अपनी इस विशिष्ट शैली का सारा श्रेय सलिल दा के सान्निध्य को देते हैं। इनका कहना है कि सलिल दा स्वयं इतनी उच्च कोटि के कवि थे कि उनके साथ हल्की भाषा का प्रयोग असंभव था। और इन गीतों की सफ़लता के बाद तो योगेशजी से सभी इसी शैली में गीत-रचना की अपेक्षा करने लगे।
अब बात आती है विचारों की सादगी की और बहुत ही सीधे और साधारण विचारों को अत्यंत सुन्दर शब्दों में बांधने की। इस सन्दर्भ में मुझे आनंद फिल्म का वो गीत सबसे पहले याद आ रहा है जिसके बारे में योगेशजी का बताना है कि वह लिखा तो गया था श्री बासु भट्टाचार्य जी की एक ऎसी फ़िल्म के लिए जो बीच ही में बंद हो गयी और गीत बिक गया Shri LB Lachman को। पर हृषि दा को वह गीत बहुत पसंद आया और राजेश खन्ना, सलिल दा और हृषिकेश मुख़र्जी साहिब ने बहुत मिन्नतें कर के वह गीत Lachmanji से प्राप्त किया – जी हाँ, यहाँ, “कहीं दूर जब दिन ढल जाए” की ही बात हो रही है। यदि देखा जाए तो इस गीत के भाव बहुत साधारण हैं – लगभग पूरे गीत में (एक अंतरे को छोड़कर), गायक/नायक सिर्फ इतना व्यक्त कर रहा है की वह किसी को बेहद याद कर रहा है। परन्तु इस सरल से भाव की सुंदर अभिव्यक्तियाँ हैं “मेरे ख़यालों के आँगन में कोई सपनों के दीप जलाए”, “मचल के, प्यार से चल के छुए कोई मुझे पर नज़र न आए”, और फिर एक खोये सपने की उपमा दे कर “ये मेरे सपने, यही तो हैं अपने मुझसे जुदा न होंगे इनके ये साये” – मूल भाव वही रहा पर शब्दों का ताना-बाना इतना सुंदर कि गीत बेहद मनमोहक बन गया। और बाक़ी बचे एक अंतरे में आनन्द की व्यथा के साथ साथ उसके अन्य पात्रों से भावनात्मक बंधन की गहरायी का भी वर्णन हो गया।
“कहीं तो ये, दिल कभी, मिल नहीं पाते
कहीं से निकल आएँ, जनमों के नाते
घनी थी उलझन, बैरी अपना मन
अपना ही होके सहे दर्द पराये, दर्द पराये”
योगेशजी के अनुसार ये अंतरा उनके और उनके मित्र श्री सत्यप्रकाशजी के भावनात्मक सम्बन्ध का भी वर्णन करता है।
दूसरा गीत जो इसी याद करने के भाव से परिपूर्ण है परन्तु जिसकी भावाभिव्यक्ति कुछ भिन्न होते हुए भी किसी भी दृष्टिकोण से कम उत्कृष्ट नहीं है, फ़िल्म “छोटी सी बात” से है – जी हाँ, इशारा “न जाने क्यूँ होता है ये ज़िंदगी के साथ” की ओर है। इस गीत में सीधे सीधे शब्दों में नायिका की मन:स्थिति का वर्णन है जहाँ उसे नायक से रोज़ मिलने की आदत है – सिर्फ़ आदत – दोनों में से किसी ने अब तक अपने प्रेमभाव को स्पष्ट रूप से प्रकट नहीं किया है, विशेषतः नायिका ने। और एक दिन हमारे नायक साहिब अकस्मात ही, बिना कुछ कहे-सुने गायब हो जाते हैं। अब इस परिस्थिति में ये गीत नायिका के मनोभाव प्रकट करने के लिए एक पार्श्वगीत की तरह फ़िल्माया गया है। यहाँ योगेशजी के शब्दों का चयन कुछ इस तरह है – “जो अन्जान पल ढल गए कल, आज वो रंग बदल बदल, मन को मचल मचल रहे हैं छल, न जाने क्यूँ वो अन्जान पल, सजे बिना मेरे नयनों में टूटे रे सपनों के महल” और फिर अगले अंतरे में “वही है डगर, वही है सफ़र, है नहीं पास मेरे मगर, अब मेरा हमसफ़र, इधर-उधर ढूँढे नज़र, वही है डगर, कहाँ गईं शामें मदभरी, वो मेरे, मेरे वो दिन गये किधर” । अब आप सोचिये “सजे बिना मेरे नयनों में टूटे रे सपनों के महल” – इससे अधिक प्रभावशाली शब्द हो सकते हैं क्या उस प्रेम को व्यक्त करने के लिए जिसका प्रथमाभास उसके अभाव के साथ ही हो?
प्रेम की प्रथम अभिव्यक्ति से एक और गीत याद आता है – फ़िल्म “मंज़िल” से – “रिम-झिम गिरे सावन, सुलग-सुलग जाए मन” – भाव कुछ रत्यात्मकता में भी ओत-प्रोत हैं परन्तु शब्द अपनी शालीनता की सीमारेखा का कहीं उल्लंघन नहीं करते – बात भले ही “भीगे मौसम में लगी अगन” की हो या “भीगे आँचल” की, “दहके सावन” की हो या “बहके मौसम” की। सावन की एकाकी रातों में नींद न आने जैसे अतिसामान्य भाव की प्रस्तुति के लिए योगेशजी ने जिन पँक्तियों की रचना की, वे कुछ इस प्रकार हैं “जब घुंघरुओं सी बजती हैं बूंदे, अरमाँ हमारे पलके न मूंदे” । और अपने मित्र व सम्बन्धी समाज में एक नवप्रेम की भावना को व्यक्त न कर सकने की हिचकिचाहट कुछ इस तरह बखानी “महफ़िल में कैसे कह दें किसी से, दिल बंध रहा है किस अजनबी से” – क्या संभव है इनसे अधिक उपयुक्त या सृजनात्मक अभिव्यक्तियाँ? और संभवतः अब आप भी मानने लगे होंगे कि इस गीत में भाव उतने सरल नहीं हैं जितने सरल गीतकार की प्रस्तुति से प्रतीत होते हैं।
अब “मंज़िल” के इस गीत से शुरू हुए, योगेशजी की काव्यकला की तृतीय विशिष्टता – अर्थात भावनात्मक रूप से जटिल विषयों के सरल प्रस्तुतीकरण, के अन्वेषण को आगे बढ़ाते हैं। मेरा मानना है कि इस श्रेणी का सर्वोत्तम उदाहरण है फ़िल्म “रजनीगन्धा” का गीत “कई बार यूं भी देखा है…” । इस पार्श्वगीत का प्रयोग दो पुरुषों के प्रति अपने आकर्षण से उद्विग्न नायिका की मनःस्थिति दर्शाने के लिए किया गया है। यदि गीत के बोलों पर ध्यान दें तो नायिका के मन का द्वन्द सहज ही स्पष्ट हो जाता है। गीत के मुखड़े में ही गीतकार ने पात्र के मन और मस्तिष्क के अन्तर्विरोध का आभास करवा दिया है, इन शब्दों से – “ये जो मन की सीमारेखा है, मन तोड़ने लगता है”, और इसी अपने ही मन से विरोधाभास की अगली कड़ियाँ हैं उसकी “अन्जानी प्यास” और “अन्जानी आस” जो मस्तिष्क की समझ की सीमाओं से बाहर प्रतीत होती हैं – मस्तिष्क शायद सामाजिक नियमों की हदों में मन के भावों का मूल्यांकन कर रहा है और उन्हें समझने में असमर्थ है। जहां पहले अंतरे में, बड़ी निपुणता से गीतकार ने फूलों का सांकेतिक रूप से प्रयोग करते हुए इस भ्रांतिग्रस्त नायिका के मनोभाव को प्रस्तुत किया है, ये कह कर “जीवन की राहों में जो खिले हैं फूल फूल मुस्कुराके, कौन सा फूल चुराके, रख लूं मन में सजाके” वहीं दूसरे अंतरे में तो पूरी उलझन अत्यंत स्पष्टता से श्रोताओं के समक्ष रख दी है। शब्द कुछ यूं चुने हैं “उलझन ये, जानूँ न सुलझाऊं कैसे, कुछ समझ न पाऊँ, किसको मीत बनाऊँ, किसकी प्रीत भुलाऊँ” । केवल इस एक गीत के माध्यम से पूरे चलचित्र का केंद्र-विषय या अन्तर्भाग पूर्णतः सुस्पष्ट हो जाता है। और मेरे विचार में, यही इस गीतकार की काव्य-कला में निर्विवाद दक्षता का प्रमाण है।
भावनात्मकता के अतिरिक्त, दार्शनिकता एक और अनुपम वर्ग है जिसे योगेशजी ने सुविज्ञतापूर्वक व्यक्त किया है कुछ गीतों में जिनमें से सबसे पहले “ज़िंदगी कैसी है पहेली हाय” याद आता है। यह गीत जीवन की क्षणभंगुरता, पल-पल बदलते स्वरुप और मृत्युपरान्त अनिश्चितता का वर्णन करता है। शब्दों का चयन कुछ इस तरह का है – “ज़िंदगी …कैसी है पहेली, हाए, कभी तो हंसाये, कभी ये रुलाये”, “एक दिन सपनों का राही, चला जाए सपनों के आगे कहाँ”। और अंतिम अंतरा तो पूरा ही गहन सोच में डाल देता है – “जिन्होंनें सजाए यहाँ मेले, सुख-दुख संग-संग झेले, वही चुनकर ख़ामोशी, यूँ चले जाएँ अकेले कहाँ”। ऐसा कम ही होता है कि ये गीत सुनने के पश्चात आँखों में तनिक भी नमी न हो। अब इससे अधिक इनकी काव्य-कला की और क्या प्रशंसा होगी? इस गीत के विषय में योगेशजी का बताना है कि ये गीत इन्हें लगभग ज़बरदस्ती ही मिला उस गीत की एवज में जो इनसे ग़लती से अन्नदाता फ़िल्म के लिए ऎसी धुन पर लिखवा लिया गया था जो पहले से “आनन्द” फ़िल्म में प्रयोग हो चुकी थी। पहले इस गीत का प्रयोग शुरू में क्रेडिट्स के समय होना था परन्तु राजेश खन्नाजी को गीत बहुत भा गया और उनके आग्रह पर इसे फ़िल्माया गया। और भाग्य की विडम्बना देखिये की वो गीत जिसकी रचना ही नहीं होनी थी, गीतकार की पहचान बनाने में प्रमुख गीतों में गिना जाता है।
योगेशजी की ये विशिष्टताएं जिन अन्य गीतों में उभर कर आती हैं, उनमें से उल्लेखनीय हैं “रजनीगन्धा फूल तुम्हारे …”, “आये तुम याद मुझे …”, “बड़ी सूनी सूनी है …”, “कोई रोको ना दीवाने को …”, “गुज़र जाए दिन …”, “कभी कुछ पल जीवन के …”, “हम और तुम थे साथी …”, “निस दिन निस दिन …”, “नैन हमारे, सांझ सखारे …”, “कहाँ तक ये मन को अंधेरे छलेंगे …”, “ये जब से हुई है जिया की चोरी …”, इत्यादि।
पिछले दिनों योगेशजी के कई चिर-परिचित गीतों को पूर्ण तन्मन्यता से सुना तो कुछ रोचक तथ्य सामने आए। मूलतः योगेशजी भावनात्मक काव्य के रचेयता हैं – इनके अधिकाँश गीत मानवीय भावनाओं से सम्बद्धित हैं विशेषकर प्रेमभाव से। स्वप्नों से भी इनका कुछ गहरा सम्बन्ध है – संभवतः इसलिए कि प्रेम व स्वप्नों और दिवास्वपनों का एक दूसरे से गठबंधन लगभग अविवादित ही माना जाता है 🙂 कारण कुछ भी हो, इनके अनेक गीतों में स्वप्न, सपने, ख्व़ाब का उल्लेख मिलता है। उदाहरण के लिए – “कहीं दूर जब दिन ढल जाए…”, “ज़िंदगी कैसी है पहेली हाय…”, और “न जाने क्यूँ…” की बात तो पहले कर ही चुके, “आये तुम याद मुझे…” में “जिस पल नैनों में सपना तेरा आए”, “हम और तुम थे साथी…” में “हमारे तुम्हारे सपने जो सच हुए थे, थामें हैं मेरा हाथ”, “गुज़र जाए दिन…” में “ख़्वाब मेरे हो गये रंगीन”, “कोई रोको ना दीवाने को…”, में “उमर के सफ़र में जिसे जो यहाँ भाए, उसी के सपनों में ये मन रंग जाए”, “मैंने कहा फूलों से …” में “ओ मैंने कहा सपनों से सजो तो वो मुस्कुरा के सज गये”, “मन करे याद वो दिन …” में “तेरे संग देखे थे जो सपने हसीन”…, “मन चाहे मेहंदी रचा लूँ …” में “मुझमें ऐसे तुम समाए मेरे सपने मुस्कुराए”, “रिम-झिम गिरे सावन …” में “कैसे देखे सपने नयन”, “नैन हमारे सांझ सखारे, देखें लाखों सपने …”, “नी स, ग म प नी, स रे ग, आ आ रे मितवा … ” में “सपना देखें मेरे खोये खोये नैना, मितवा मेरे आ तू भी सीख ले सपने देखना”, “रातों के साए घने…” में “लगता है होंगे नहीं सपने ये पूरे मेरे”, और “रजनीगन्धा फूल तुम्हारे…” में “हर पल मेरी इन आँखों में बस रहते हैं सपने उनके” इत्यादि। यहाँ तक के इनकी ग़ैर-फ़िल्मी कृतियों में भी सपनों का उल्लेख मिलता है, जैसे “कुछ ऐसे भी पल होते हैं …” में “चुभने लगता है साँसों में बिखरे सपनों का हर दर्पण”। वैसे “मन” और “नयन” शब्द का प्रयोग भी इन्होंनें कुछ कम नहीं किया :-)। इनके कार्यकाल के प्रारम्भिक 6-7 वर्षों में लिखे हुए गीतों में, उर्दू शब्दों का प्रयोग भी दिखता है। अंतिम दशक में गीतों के बोलों और भाव अभिव्यक्ति का स्तर हल्का पड़ गया है परन्तु ये शायद समय की मांग कही जायेगी – सामान्यतः गीतों के बोलों से श्रोताओं का ध्यान लगभग ख़त्म ही हो गया है इस काल में। फिर भी इनकी भाषा का साथ शालीनता ने नहीं छोड़ा। वैसे देखा जाए तो योगेशजी को “बहु-उपयोगी” गीतकार नहीं कहा जा सकता परन्तु अपने क्षेत्र के विशेषज्ञ वे अवश्य रहे हैं। बदलते समय और परिवेश के साथ, दर्शकों की रूचि भी बदल गयी और इस महान गीतकार की लोकप्रियता में कमी आ गई परन्तु सातवें दशक में इनके लिखे गीतों को अब भी अत्याधिक सराहना मिलती है।
आजकल 3-4 नई छोटे बजट की फ़िल्में बन रही हैं जो योगेशजी के गीतों से सजेंगी| इनमें से एक “ये दीवानगी” लगभग तैयार है और बाकियों पर काम चल रहा है।
पारिवारिक क्षेत्र में, योगेशजी दो पुत्रियों और एक पुत्र के पिता हैं। इनके सभी बच्चे विवाहित हैं और आजकल ये अपने पुत्र व पुत्रवधू के साथ मुम्बई में रहते हैं। जब इनसे पहली बार बात हुई त़ो ये अपने पोते/पोती के जन्म की आतुरता से प्रतीक्षा कर रहे थे। दो-तीन दिन बाद ही पता चला कि ये दादा बन गए हैं और इनके यहाँ एक नन्हीं परी का आगमन हुआ है। हम सबकी ओर से इन्हें बहुत-बहुत बधाई।
अंत में मैं केवल ईश्वर से योगेशजी के लिए दीर्घायु व आरोग्य की प्रार्थना करूंगी और यही चाहूंगी कि वे फ़िल्मी ही नहीं अपितु ग़ैर-फ़िल्मी गीत व कविताएँ भी अवश्य लिखते रहें|
ग्रन्थसूची संदर्भिका :
1. योगेशजी से जनवरी 2013 में हुई बात-चीत
2. हिन्दी फ़िल्मों के गीतकार – श्री अनिल भार्गव
आभार –
1. श्री अपूर्व मोघे – योगेशजी के गीतों की पूरी सूची के लिए जिसके अभाव में मुझे घंटों बहुत से स्त्रोत्रों और सूत्रों पर खोजबीन करनी पड़ती।
2. श्री अरुण मुद्गल – योगेशजी से सम्पर्क करवाने के लिए।
3. श्री आदित्य पन्त – इस लेख व इसके अनुवाद की समीक्षा व पुनर्विलोकन के लिए
4. श्री श्याम उत्तरवार – योगेशजी पर लिखने का अवसर प्रदान करने के लिए
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