फिल्म हलकी ज़रूर है पर आपको बांधे रखती है ! कहीं कहीं आपको ये आभास भी होता है कि आप कोई परिकथा सुन रहे हैं, पर तकरीबन एक घंटा चालीस मिनट की ये परिकथा आपको अपने साथ बहाए जाती है ! सवांद बंगला और अंग्रेजी में होने के बावजूद परदे पर अपने दृश्यों और कहानी की पकड़ के ज़रिये उत्साह भरने के लिए काफी है ! राहुल बोस फिल्म में काफी जमे हुए नज़र आते हैं ! परदे पर दृश्य काफी तेज़ी से बदलते हैं और साथ ही संवाद भी ,जो कि फिल्म की सबसे बड़ी खासियत है ! अगर फिल्म की दूसरी खासियत की बात करें तो इसका निर्देशन , कसा हुआ संपादन और पार्श्वसंगीत ! फिल्म के पात्र काफी जल्द खुद को स्थापित करते नज़र आते हैं ! फिल्म तीन लोगों और उनके साथ घटती घटनाओं का ताना बना हमारे सामने प्रस्तुत करती है ,जिसमे निर्देशक के तौर पर अपर्णा सेन काफी हद तक कामयाब हुईं है ! मोष्मी चेटर्जी अपनी भूमिका में काफी बेहतर नज़र आयीं !
दो लोग –भाषा, संस्कृति से काफी जुदा होते हुए भी एक दूसरे को अपनाते हैं ! वहीँ पतंग का खेल दो लोगों को करीब ले आता है !फिल्म अपने आखिर तक एक उत्सुकता बनाये रखती है कि ‘आगे क्या’?
राहुल बोस एक ऐसे पति की भूमिका में नज़र आते हैं जो अपनी पत्नी से कभी मिला नहीं, सिर्फ खतों के ज़रिये हालचाल मालूम कर पाता है ,उसकी परेशानी तब बढ़ जाती है जब उसे ये खबर होती है कि विदेश में रह रही उसकी पत्नी की तबियत काफी खराब है ! अपनी और से वो काफी कोशिश करता है ,यहाँ तक कि आयुर्वेदिक , होम्योपेथिक ,यूनानी सभी तरह कोशिश जिससे वो उसकी कुछ न कुछ मदद कर पाए , ये सब नामुमकिन सा मालूम होता देख एक दिन वो खुद उसके पास जाना तय करता है ,पर जा नहीं पाता .कहानी के अंत में क्या होता है इसके लिए आप फिल्म ज़रूर देखें