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नीरज -”कारवां गीतों का”

03 Oct

 जब लिखने के लिए लिखा जाता है तो जो कुछ लिखा जाता है, उसका नाम है गद्य, पर जब लिखे बिना न रहा जाये, और जो खुद ब खुद लिख लिख जाये, उसका नाम है कविता. मेरे जीवन में कविता लिखी नहीं गयी, खुद लिख लिख गयी है, जैसे पहाड़ों पर निर्झर और फूलों पर ओस की कहानी लिख जाती है. जिस प्रकार “जल-जल कर बुझ जाना” दीपक के जीवन की विवशता है, उसी प्रकार गा-गा कर चुप हो जाना मेरे जीवन की मजबूरी है.

—– कविवर नीरज जी की किताब “कारवां गीतों का” के प्राक्कथन से साभार गृहित

कुछ ऐसे ही हैं, भारतीय गीतकारों में लोकप्रियता के शिखर छू लेने वाले कवि गोपालदास नीरज जी. उनकी नज़र में साहित्य के लिए मनुष्य से बड़ा और कोई दूसरा सत्य संसार में नहीं है और जो साहित्य मनुष्य के सुख-दुःख का साझीदार नहीं, वे उसका समर्थन कतई नहीं करते. मानवीय संबंधों में प्रेम सर्वश्रेष्ठ सम्बन्ध है. इसीलिए मानव प्रेम ही उनकी कविताओं का मूल स्वर है. अपनी किताब “नीरज की पाती” में उन्होंने प्रेम को दोहरे आयाम दिए हैं. उनकी संवेदना प्रियतमा से लेकर मनुष्य मात्र तक फैली हुई है.
प्रियतमा की याद में बेकल उनका मन बरबस ही गा उठता है —
” तुम न आई और मेरे फूल से सुन्दर सपने, एक निर्धन की उम्मीदों की तरह टूट गए,
घर में दो चार जो मेहमान थे अरमानों के, एक बेवा की जवानी की तरह रूठ गए.
आजा अब तो ओ कँवल पात-चरण, चन्द्र बदन, सांस हर मेरी अकेली है, दुकेली कर दे,
सूने सपनों के गले डाल दे गोरी बाहें, सर्द माथे पे ज़रा गर्म हथेली रख दे.”
किन्तु सामाजिक सरोकारों को भी वे अनदेखा कहाँ कर सकते थे. इसीलिए फिर यह भी कहते हैं की —
“पर ठहर, जो वहां लेटे हैं, फुटपाथों पर, सर पे पानी की हरेक बूँद को लेने के लिए,
उगते सूरज की नयी आरती करने के लिए, और लेखों की नयी सुर्खियाँ देने के लिए.
पहले इन सबके लिए एक इमारत गढ़ दूं, फिर तेरी सांवली पलकों के सपन देखूँगा,
पहले हर दीप के सर पर कोई साया कर दूं, फिर तेरे भाल में चंदा की किरण देखूँगा. ”

अपनी प्रियतमा को, प्यार करके न निभा पाने का उलाहना देते हुए लिखते हैं की —
“ज्ञात यह किन्तु नहीं था की प्यार तेरा भी, रूपहले चंद ठीकरों का खरीदार ही है,
क़ैद है तेरी कलाई भी किसी कंगन में, तू भी सोने की घूमती हुई झंकार ही है.”
फिर अगले ही पल खुद ही अपनी प्रियतमा की बेवफाई की वकालत कर खुद ही उसे इन दोषों से आज़ाद कर देते हैं —
“अपनी मर्ज़ी से नहीं, दुसरे की मर्ज़ी से, बेचना तुझको पड़ा है जवान तन अपना,
झूधि मुर्दार रूढ़ियों की हिफाज़त के लिए, मारना तुझको पड़ा है शहीद मन अपना.”

एक पाती उस ढलती हुयी सूरज की किरण के नाम भी लिखी है, जो दूर किसी बाग़ में अपना बसेरा करती है —
“व्योम पे पहला सितारा अभी ही चमका है, धूप ने फूल का आँचल अभी ही छोड़ा है,
बाग़ में सोयी हैं मुस्का के अभी ही कलियाँ, अभी ही नाव का पतवार ने रुख मोड़ा है.
आग सुलगाई है चूल्हों ने अभी ही घर-घर, अभी ही आरती गूंजी है मठ शिवालों में,
अभी ही पार्क में बोले हैं एक नेताजी, अभी ही बांटा टिकट है सिनेमा वालों ने.”

किन्तु ढलती हुयी इस शाम में और भी बहुत कुछ होता है, जो मानवता को शर्मसार कर देता है —
“और बस्ती वह “मूलगंज” जहाँ कोठों पर, रात सोने को नहीं, जागने को आती है,
एक ही दिन में जहाँ रूप की अपरूप कली, ब्याह भी करती है और बेवा भी हो जाती है.”
और उनका कराहता हुआ मन कह उठता है —
“सोचता हूँ क्या यही स्वप्न था आजादी का ? रावी तट पे क्या कसम हमने यही खायी थी ?
क्या इसी वास्ते तडपी थी भगत सिंह की लाश ? दिल्ली बापू ने गरम खून से नहलाई थी ?”

कश्मीर का मुद्दा महज सीमा रेखा का मामूली विवाद नहीं, बल्कि एक ऐसा संवेदनशील मसला है, जिस से समूचा भारतीय जनमानस ह्रदय से जुडा है. नीरज जी की लेखनी भी इस से अछूती नहीं रही है. कश्मीर के नाम अपनी पाती में वे कहते हैं —
“सरहद पर बारूद लिए है आंधी खड़ी तलाश में, घुला हुआ है ज़हर हवा में, धुंआ घिरा आकाश में,
लन्दन से वाशिंगटन और कराची से लाहौर तक, तुझे मिटाने की हर कोशिश है मज़हबी लिबास में.
उठ ओ मेरे कश्मीर, बो ऐसे बीज जहान में, खिलें प्रेम के फूल सुर्ख हर बारूदी वीरान में,
आज़ादी का अर्थ आंगनों में से भूख बुहारना, और बिछाना पलंग सूर्य का, मन के बंद मकान में”.

और एक पाती देश के छोटे भाई, पाकिस्तान के नाम भी —
“शोर यह नफरत भरा जिसमें कि डूबी है कराची, सुन उसे शरमा रहे हैं, रे क़ुतुब मीनार साँची.
उग रही है सिन्धु तट पर फसल वह बारूद वाली, देख उसको हो रही है, ताज की तस्वीर काली.
बात तो तब है की जब अपने हृदय ऐसे मिले हों, घर हमारा जग उठे जब दीप घर तेरे जले हों,
और तेरे दर्द को मेरी ख़ुशी यूं दे सहारा, आँख तेरी हो मगर उससे बहे आंसू हमारा.
दो हुए तो क्या, मगर हम एक ही घर के सेहन हैं, एक ही लौ के दिए हैं, एक ही दिन की किरण हैं.
श्लोक के संग आयतें पढ़तीं हमारी तख्तियां हैं, और होली-ईद आपस में अभिन्न सहेलियां हैं.
फर्क हम पाते नहीं हैं कुछ अजानो-कीर्तन में, क्योंकि जो कहती नमाज़ें, है वही हरी के भजन में.
ज्यों जलाकर दीप धोते हम समाधी का घिरा तम, हैं चढाते फूल वैसे ही मजारों पर यहाँ हम.
हम नहीं हिन्दू-मुसलमाँ, हम नहीं शेखो-बिरहमन, हम नहीं क़ाज़ी-पुरोहित, हम नहीं रामू-रहीमन.
भेद से आगे खड़े हम, फर्क से अनजान हैं हम, प्यार है मज़हब हमारा, और बस इंसान हैं हम.”

दुनिया में व्याप्त दुःख और तकलीफों पर क्षोभ व्यक्त करते हुए नीरज जी की एक पाती उनके नाम भी, जो इन दुखों और तकलीफों के लिए ज़िम्मेदार हैं –
“ह्रदय-ह्रदय के बीच खाइयाँ, लहू बिछा मैदानों में, घूम रहे हैं युद्ध सड़क पर, शांति छिपी शमशानों में.
जंजीरें कट गयीं, मगर आज़ाद नहीं इंसान अभी, दुनिया भर की ख़ुशी क़ैद है चांदी जड़े मकानों में.
नयन-नयन तरसें सपनों को, आँचल तरसें फूलों को, आँगन तरसें त्यौहारों को, गलियां तरसें झूलों को.
किसी होंठ पर बजे न वंशी, किसी हाथ में बीन नहीं, उम्र समुन्दर की दे डाली, किसने चंद बबूलों को.
रंग बिरंगी दुनिया तो यह रेशम वाली साड़ी है, जनम कि जिसका पल्ला-गोटा, मरण कि छोर-किनारी है.
कोई पहने इसे प्यार से, कोई ओढ़े पछताकर, चमक न इसकी घटी, गयी गो लाखों बार उतारी है.
फिर भी रंग इस पर न चढ़े तो अपना रक्त चढ़ाता चल, राही हैं सब एक डगर के, सब पर प्यार लुटाता चल”.

मानव सभ्यता का जितना नुकसान फिरकापरस्तों ने किया है, उतना शायद ही किसी और ने किया हो. इन्ही फिरकापरस्तों को संबोधित करते हुए नीरज जी लिखते हैं —” गीत जब मर जायेंगे, फिर क्या यहाँ रह जायेगा, इक सिसकता आंसुओं का कारवां रह जायेगा.
प्यार की धरती अगर बन्दूक से बांटी गयी, एक मुर्दा शहर अपने दरमियाँ रह जायेगा.
आग लेकर हाथ में पगले जलाता है किसे, जब न यह धरती रहेगी, तू कहाँ रह पायेगा.
घर चिरागों की हिफाज़त फिर उन्हें सौंपी गयी, रौशनी मर जाएगी, खली धुंआ रह जायेगा.”

और अंत में एक सन्देश, हर उस इंसान के नाम, जो मानवीय प्रेम का सौदाई है —
“अब तो इक ऐसा वरक ,मेरा-तेरा ईमान हो, इक तरफ गीत हो जिसमें, इक तरफ कुरआन हो.
काश ऐसी भी मोहब्बत हो कभी इस देश में, मेरे घर उपवास हो, जब तेरे घर रमजान हो.
मज़हबी झगडे ये अपने आप सब मिट जायेंगे, और कुछ होकर न ग़र इंसान बस इंसान हो.
कृष्ण की वंशी का आशिक तू भी हो जायेगा दोस्त, बज़्म में तेरी अगर शामिल कोई रसखान हो.
अपना यह हिंदोस्तां होगा तभी हिंदोस्तां, हाथ में हिंदी के उर्दू का कोई दीवान हो.

by -ajit sidhu

GHAM PE DHOOL DAALO :

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1 Comment

Posted by on October 3, 2012 in Articles

 

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